वक़्त का आप क्या कहेंगे मिजाज ,
हमने वक़्त आने पे वक़्त को बदलते देखा है ,
कहकहों के गूंज जो हुआ करते थे महफ़िलों की शान ,
उन कहकहों की गूंज को अश्कों में बदलते देखा है /
इन्सान भी देखें मैंने कुछ भगवान से बढ़कर ,
तो कुछ इंसानों को मैंने इंसानियत को कुचलते देखा है ,
कुछ को देखा है मैंने हीरों को भी फेंकते हुए पत्थरों की तरह ,
तो कुछ को चंद सिक्कों के लिए भी नियत बदलते देखा है /
किसी को अपनों के लिए फूलों पे भी चलने से डरते देखा है मैंने ,
तो किसी को गैरों के लिए खंजर पे भी चलते देखा है ,
अपनों को अपना और गैरों को गैर कहने से अब डरता हूँ मै ,
जब से बारात को जनाजे के मंजर में बदलते देखा है /
जिन्दगी आग का दरिया है गर तब भी चलना होगा ,
जैसे सर्कस के मदारी को आग पे चलते देखा है ,
कैसे कहें की अब उन्हें जिन्दगी की समझ हो गयी है ,
जिन्हें अब बच्चों के खिलौनों के लिए मचलते देखा है /
बदला है वक़्त , बदला है मौसम और बदले हैं दिन और रात भी ,
तभी तो कांपते रूहों के दिलों को भी अब जलते देखा है ,
वक़्त की बात ही तो है कि जो रखवाली करते हैं दिन में ,
उन पहरेदारों को रात में मुजरिमों के साथ में चलते देखा है ,
अब तो डर लगता है खुदा और भगवान से भी मुझको ,
जब से मौलवियों को टोपी और दाढ़ी बदलते देखा है ,
जबसे देखा है मैंने शराबखाने से पंडितों को निकलते हुए ,
और कुछ साधुओं को तवायफों के साथ में चलते देखा है ,
महंगाई कि मार से इस कदर मारे हैं बहु-बेटियों कि जलाने वाले,
कि अब ट्रेनों को उनके गले के ऊपर से निकलते देखा है,
कुछ को देखा है मैंने तेजाब के बदले में खुद को गिरवी रखते हुए ,
तो कुछ को पेट्रोल को अपने खून से बदलते देखा है ,
किसे कहें बेईमान अब तो यही सोचना पड़ता है ,
जब से ईमान के सौदे में ईमान को ही ईमान बदलते देखा है ,
सूरज भी मोम कि तरह पिघलता हुआ नजर आता है अब,
और चाँद को भी आजकल आग उगलते देखा है ,
सोचता हूँ क्या जानवरों से भी बदतर क्या हो गया है आदमी ,
जब से मैंने गिद्धों को कभी आदमी की लाशों पे नही उतरते देखा है,
पूजने को दिल करता है इन चील-कौओं को भी अब ,
जब से आदमियों को एक दुसरे का मांस कुतरते देखा है /
कुछ इस कदर मैंने वक़्त को बदलते देखा है ,
कि वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ,
ये दुनिया है इसकी फितरत नही बदलती "राजीव" !
ये कह कर कलम को भी लिखने से मुकरते देखा है /
हमने वक़्त आने पे वक़्त को बदलते देखा है ,
कहकहों के गूंज जो हुआ करते थे महफ़िलों की शान ,
उन कहकहों की गूंज को अश्कों में बदलते देखा है /
इन्सान भी देखें मैंने कुछ भगवान से बढ़कर ,
तो कुछ इंसानों को मैंने इंसानियत को कुचलते देखा है ,
कुछ को देखा है मैंने हीरों को भी फेंकते हुए पत्थरों की तरह ,
तो कुछ को चंद सिक्कों के लिए भी नियत बदलते देखा है /
किसी को अपनों के लिए फूलों पे भी चलने से डरते देखा है मैंने ,
तो किसी को गैरों के लिए खंजर पे भी चलते देखा है ,
अपनों को अपना और गैरों को गैर कहने से अब डरता हूँ मै ,
जब से बारात को जनाजे के मंजर में बदलते देखा है /
जिन्दगी आग का दरिया है गर तब भी चलना होगा ,
जैसे सर्कस के मदारी को आग पे चलते देखा है ,
कैसे कहें की अब उन्हें जिन्दगी की समझ हो गयी है ,
जिन्हें अब बच्चों के खिलौनों के लिए मचलते देखा है /
बदला है वक़्त , बदला है मौसम और बदले हैं दिन और रात भी ,
तभी तो कांपते रूहों के दिलों को भी अब जलते देखा है ,
वक़्त की बात ही तो है कि जो रखवाली करते हैं दिन में ,
उन पहरेदारों को रात में मुजरिमों के साथ में चलते देखा है ,
अब तो डर लगता है खुदा और भगवान से भी मुझको ,
जब से मौलवियों को टोपी और दाढ़ी बदलते देखा है ,
जबसे देखा है मैंने शराबखाने से पंडितों को निकलते हुए ,
और कुछ साधुओं को तवायफों के साथ में चलते देखा है ,
महंगाई कि मार से इस कदर मारे हैं बहु-बेटियों कि जलाने वाले,
कि अब ट्रेनों को उनके गले के ऊपर से निकलते देखा है,
कुछ को देखा है मैंने तेजाब के बदले में खुद को गिरवी रखते हुए ,
तो कुछ को पेट्रोल को अपने खून से बदलते देखा है ,
किसे कहें बेईमान अब तो यही सोचना पड़ता है ,
जब से ईमान के सौदे में ईमान को ही ईमान बदलते देखा है ,
सूरज भी मोम कि तरह पिघलता हुआ नजर आता है अब,
और चाँद को भी आजकल आग उगलते देखा है ,
सोचता हूँ क्या जानवरों से भी बदतर क्या हो गया है आदमी ,
जब से मैंने गिद्धों को कभी आदमी की लाशों पे नही उतरते देखा है,
पूजने को दिल करता है इन चील-कौओं को भी अब ,
जब से आदमियों को एक दुसरे का मांस कुतरते देखा है /
कुछ इस कदर मैंने वक़्त को बदलते देखा है ,
कि वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ,
ये दुनिया है इसकी फितरत नही बदलती "राजीव" !
ये कह कर कलम को भी लिखने से मुकरते देखा है /
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