Friday 11 November 2011

वो माँ होती है

वो माँ होती है
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तुम दूर रहो या पास,
उसको हर पल होता एहसास,
जिसके हृदय में हर पल बस दुआ होती है,
वो माँ होती है ,
वो मार  भी देती है,
जब थोड़ी गुसा होती है ,
फिर हमसे  दूर जाकर के जो बहुत रोती है ,
वो माँ होती है  ,
आती है मुझको याद ,  बचपन की सारी  बातें,
माँ के गोद में बैठ के करना , प्यारी   बातें , 
बार बार एक बात पे नही कभी  गुसा होती है ,
वो माँ होती है ,
जब हम अपने पैरों पे खड़े  होते हैं,
दुनिया की नजरों में हम थोड़े बड़े होते हैं,
खुशियाँ देख हमारी जो बहुत खुश  हो जाती  है ,
वो माँ होती है ,
अरमानो के सपने  गढ़ना जिसने सिखलाया ,
आसमान में उड़ते हैं कैसे, उसने सिखलाया ,
वो इतना कुछ इसलिए हमको सिखलाती है
क्यूंकि वो माँ होती है ,
पर हमने कहाँ कभी उसकी बात को समझा ?
खुदगर्जी में हमने नही  उसके जज्बात को समझा ,
जब हुए बड़े तो पैसों के झंकार में डूबे,
और माँ बाबूजी के  हमने नही हालात को समझा ,
घर से दूर हुए तो वो माँ रोई,
कई कई दिन तक उसकी आँखे   ना  सोयी ,
कई कई दिन तक उसने  कुछ भी तो  न  खाया,
रख ह्रदय पे पत्थर उसने खुद को समझाया ,
उसके भी तो कुछ होते हैं अरमान ,
जिस्म जला के भी कराती है जो  स्तनपान ,
नही मांगती है वो हमसे ये धरती, आसमान
बस चाहती है वो जननी सा  सम्मान ,
एक दिन आता है, वो कहीं खो जाती है ,
आंखे करती है बंद , और फिर सो जाती है ,
दुनिया की झंकार फिर कहीं खो जाती है ,
सारी दुनिया जाने क्यूँ सुनी हो जाती है ,
ह्रदय  में  आंसू तब आ जाते हैं,
 माँ के हाथ तब भी हमको   सहलाते हैं ,
हम नौजवान और  हम बूढ़े हो जाते हैं ,
माँ के खातिर तब भी बच्चे कहलाते हैं ,
आओ हम माँ को माँ का हक़ दे दें ,
उसकी गोद में सर रखे उसकी दुआएं  लें ,
माँ दूर रहे या पास ,
माँ दुनिया में सबसे खास ,
जिसका  पावन  एहसास जीवन को महका देती है ,
वो और नही कोई बस वो माँ होती है ,

Sunday 16 October 2011

दिल मेरा हर बार

खून  किसी के जख्म का एक दिन  ,  पोंछ  दिया था  मैंने    तो   
 देख हाथ मेरी ये दुनिया मुझको ही गुनाहगार कहे..

इश्क बहाना   है बस , दिल को अपने समझाने का
 सारी दुनिया इस  बहाने को, पता नही क्यूँ प्यार कहे ..

हर बार धोखा खाते हैं     इस बेदर्द      जमाने  से 
यही   आखिरी   धोखा   था ,  ये दिल मेरा हर बार कहे

अयोध्या प्रेम

( Ayodhya mudde par faisle ke waqt likhi mere lekh ka part)  

एक हिन्दू होकर के भी मैंने कभी हिंदुयों का साथ नही दिया न ही मुस्लिमों से कोई प्रेम है.और हाँ ना ही कभी ईद  में किसी से गले मिलने से नफरत किया ,ना ही , होली  के रंगों में डूब जाने से कोई दूर रहे . लेकिन हाँ सचाई से मुह मोड़ना शायद हमने सिखा नही कभी  . आज का सबसे जवलंत  मुद्दा है कि, अयोध्या मुद्दे  पर  फैसला  आने वाला  है कोर्ट का और हर कोई त्यारियां कर रहा है उस दिन होने वाले विवादों के लिए . मीडिया ने अपने ने इंटरव्यू  के लिए बुक कर लिया है उन सब को जिनका  इस देस से कोई लेना देना नही है , जिनका किसी धर्मं से कोई लेना देना नही है , जिनका न्यायिकता से कोई लेना देना नही है .
लेकिन फैसला सुनाने के दिन वे पूरी तयारी के साथ आयेंगे और वो भी पूरी हमदर्दी के साथ . कभी नमाज न पढने वाले चमचमती हुई टोपी पहन के आयेंगे . तो कभी मंदिर न जाने वाले लाल पीला , हरा नीला  कपडा लटका के . और उस दिन आप भी घर से बाहर  नही जाईयेगा  क्योकिं उस दिन आप सुनेगे देस प्रेम ,धर्म प्रेम के नये नये किस्से.
मंदिर मस्जिद को स्वाभिमान के साथ जोड़ना तो आसान है लेकिन जो इसे स्वाभिमान के साथ जोड़ रहे हैं वो सिर्फ या तो मंच से भासन देने वाला वर्ग है या फिर दूर केबिनो में बैठ कर देश सुधार , समाज सुधार का ढकोसला रचने वाले . लेकिन जो  भी स्वाभिमान की बात करते हैं,  तो उनसे एक ही सवाल है की क्या आप जायेंगे स्वाभिमान की लड़ाई लड़ने  . अरे देश पे हमला करने वाले तो खुद ये —– लोग हैं जो कभी स्वाभिमान या फिर कभी धर्म के नाम पर बेचारी जनता को लडाते रहते हैं . और खुद घरों में दुबके पड़े रहते हैं. और जब फैसला सुनाया जायेगा न तब भी देखिएगा की उस वक़्त आपका स्वाभिमान कहा होंगा , जब आप अपने कमरे में बैठ कर चर्चा करते फिरेंगे . मै दावा करता हूँ की जो इस झगड़े को जन्म दे रहे हैं वो वो एक बार उस दिन चलकर के खड़े तो हों वहां . तो उसी वकत ख़त्म कर दिया जायेगा सदियों का झगड़ा . लेकिन अगर नही चल सकते तो अपने घरों में चुपचाप बैठे रहें और जो होता है उस होने दें.
आखिर क्यूँ नफरत है इनको ईद  के मौके पे हिन्दू और मुस्लिम के गले मिलने से , क्यूँ इनकी ——————- जाती है जब होली में सब एक होना  चाहते हैं .
क्यूँ
क्यंकि  तब ये वोट कैसे पाएंगे क्यूंकि इनका भी तो सपना है ,, सरकार में जाने का , और  या तो खेल नही तो सडक ,नही तो बाढ़ ,  नही तो देस का विकास करना . जैसे कि सब कर रहे हैं.
और सब से अच्छी बात तो ये है कि मुंबई में रहने वाले धर्म प्रेमी जो इस अयोध्या में रहने वालों को मारते  वक़्त ये नही पूछते कि तुम मुस्लिम हो या हिन्दू ? तुम अयोध्या से आये हो या आजमगढ़ से  ??  वो भी शामिल हैं इस अयोध्या प्रेम में , उन्हें भी प्रेम है इस अयोध्या में जन्मे राम से …  इस बाबरी मस्जिद में निवास  करने वाले खुदा से ..——————————————————————-……………

वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ...

वक़्त का आप क्या कहेंगे मिजाज ,
हमने वक़्त आने पे वक़्त को बदलते देखा है ,
कहकहों के गूंज जो हुआ करते थे महफ़िलों की शान ,
उन कहकहों की गूंज को  अश्कों में बदलते देखा है /


इन्सान भी देखें मैंने कुछ भगवान से बढ़कर ,
तो कुछ इंसानों को मैंने इंसानियत को कुचलते देखा है ,
कुछ को देखा है मैंने हीरों को भी फेंकते हुए पत्थरों की तरह , 
तो कुछ को चंद सिक्कों के लिए भी नियत बदलते देखा है /


किसी को अपनों  के लिए फूलों पे भी चलने से  डरते देखा है मैंने ,
तो किसी को  गैरों के लिए  खंजर पे भी चलते देखा है ,
अपनों को अपना और गैरों को गैर कहने से अब डरता हूँ मै ,
जब से बारात को जनाजे के मंजर में बदलते देखा है /


जिन्दगी आग का दरिया है गर तब भी चलना होगा , 
जैसे सर्कस के मदारी को आग पे चलते देखा है ,
कैसे कहें की अब  उन्हें जिन्दगी की समझ हो गयी है ,
जिन्हें अब बच्चों  के खिलौनों के लिए मचलते देखा है /

बदला है वक़्त , बदला है मौसम और बदले हैं दिन और रात भी ,
तभी तो कांपते रूहों के दिलों को भी अब जलते  देखा है ,
वक़्त की बात ही तो है कि  जो रखवाली करते हैं दिन  में ,
 उन पहरेदारों को रात  में मुजरिमों के साथ में चलते देखा है ,


अब तो डर लगता है खुदा और भगवान से भी मुझको ,
 जब से मौलवियों को टोपी और दाढ़ी बदलते देखा है ,
जबसे देखा है मैंने शराबखाने से पंडितों को निकलते हुए ,
और कुछ  साधुओं को तवायफों के साथ में चलते देखा है ,


महंगाई कि मार से इस कदर मारे  हैं  बहु-बेटियों कि जलाने  वाले, 
कि अब ट्रेनों को उनके गले के ऊपर से निकलते  देखा है,
कुछ को देखा है मैंने तेजाब के बदले में खुद को गिरवी रखते हुए , 
तो कुछ को पेट्रोल  को अपने खून से बदलते देखा है , 


किसे कहें बेईमान अब तो यही सोचना पड़ता है ,
जब से ईमान  के सौदे में ईमान  को ही ईमान बदलते देखा है ,
 सूरज भी मोम कि तरह   पिघलता हुआ नजर आता है अब, 
 और चाँद को भी आजकल   आग उगलते देखा है ,


सोचता हूँ क्या जानवरों से भी बदतर क्या हो गया है आदमी ,
जब से  मैंने गिद्धों को कभी आदमी की लाशों पे नही उतरते देखा है,
पूजने को दिल करता है इन चील-कौओं को भी अब ,
जब से आदमियों को एक दुसरे का मांस कुतरते देखा है /



कुछ इस कदर मैंने वक़्त को बदलते देखा है ,
कि वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ,
ये दुनिया है इसकी फितरत नही बदलती  "राजीव" !
ये कह कर कलम को भी लिखने से मुकरते  देखा है /

Wednesday 21 September 2011

ये हमारी चाहत है की जिसने आपको हीरा बना दिया

ये  हमारी  चाहत  है  की  जिसने  आपको  हीरा  बना  दिया  ,
वरना  कोयले  में  दबे  हीरे तक   की  कोई  पहचान  नही  होती  ,
किसी  ना  किसी  पर   कीजिये  रहम ओ करम  ,
वरना  हर  वक़्त  किस्मत  मेहरबान  नही  होती  .

हुस्न  है   तो  इश्क  में  चलना  सीखिए   ,
किसी  के  इश्क   में  आप  भी  मचलना  सीखिए ,
  वरना  ढल  जाएगी   जब  रंगत  ऐ  नूर  आपके  हुश्न  का  ,
तो  आप  औरों  से   कहेंगे   की  सही   वक़्त  पे  संभलना  सीखिए  .............

वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ...

वक़्त का आप क्या कहेंगे मिजाज ,
हमने वक़्त आने पे वक़्त को बदलते देखा है ,
कहकहों के गूंज जो हुआ करते थे महफ़िलों की शान ,
उन कहकहों की गूंज को  अश्कों में बदलते देखा है /


इन्सान भी देखें मैंने कुछ भगवान से बढ़कर ,
तो कुछ इंसानों को मैंने इंसानियत को कुचलते देखा है ,
कुछ को देखा है मैंने हीरों को भी फेंकते हुए पत्थरों की तरह , 
तो कुछ को चंद सिक्कों के लिए भी नियत बदलते देखा है /


किसी को अपनों  के लिए फूलों पे भी चलने से  डरते देखा है मैंने ,
तो किसी को  गैरों के लिए  खंजर पे भी चलते देखा है ,
अपनों को अपना और गैरों को गैर कहने से अब डरता हूँ मै ,
जब से बारात को जनाजे के मंजर में बदलते देखा है /


जिन्दगी आग का दरिया है गर तब भी चलना होगा , 
जैसे सर्कस के मदारी को आग पे चलते देखा है ,
कैसे कहें की अब  उन्हें जिन्दगी की समझ हो गयी है ,
जिन्हें अब बच्चों  के खिलौनों के लिए मचलते देखा है /

बदला है वक़्त , बदला है मौसम और बदले हैं दिन और रात भी ,
तभी तो कांपते रूहों के दिलों को भी अब जलते  देखा है ,
वक़्त की बात ही तो है कि  जो रखवाली करते हैं दिन  में ,
 उन पहरेदारों को रात  में मुजरिमों के साथ में चलते देखा है ,


अब तो डर लगता है खुदा और भगवान से भी मुझको ,
 जब से मौलवियों को टोपी और दाढ़ी बदलते देखा है ,
जबसे देखा है मैंने शराबखाने से पंडितों को निकलते हुए ,
और कुछ  साधुओं को तवायफों के साथ में चलते देखा है ,


महंगाई कि मार से इस कदर मारे  हैं  बहु-बेटियों कि जलाने  वाले, 
कि अब ट्रेनों को उनके गले के ऊपर से निकलते  देखा है,
कुछ को देखा है मैंने तेजाब के बदले में खुद को गिरवी रखते हुए , 
तो कुछ को पेट्रोल  को अपने खून से बदलते देखा है , 


किसे कहें बेईमान अब तो यही सोचना पड़ता है ,
जब से ईमान  के सौदे में ईमान  को ही ईमान बदलते देखा है ,
 सूरज भी मोम कि तरह   पिघलता हुआ नजर आता है अब, 
 और चाँद को भी आजकल   आग उगलते देखा है ,


सोचता हूँ क्या जानवरों से भी बदतर क्या हो गया है आदमी ,
जब से  मैंने गिद्धों को कभी आदमी की लाशों पे नही उतरते देखा है,
पूजने को दिल करता है इन चील-कौओं को भी अब ,
जब से आदमियों को एक दुसरे का मांस कुतरते देखा है /



कुछ इस कदर मैंने वक़्त को बदलते देखा है ,
कि वक़्त को ही वक़्त से डरते देखा है ,
ये दुनिया है इसकी फितरत नही बदलती  "राजीव" !
ये कह कर कलम को भी लिखने से मुकरते  देखा है /

क्या तुमने ऐसा अधम कुकृत्य किया होता ???

कल शहर के राह  पर मैंने भीड़ देखा था ,
जहाँ एक नवजात कन्या को उसकी माँ ने फेंका था ,
मै बेबस था चुपचाप था बहुत परेशान था ,
मै उस नवजात की माँ की ममता पे बहुत हैरान था  ,

मै कुछ नही कह सकता था उस भीड़ से , क्युं कि मै भी एक इंसान था ,
पर क्या उस कुछ देर पहले जन्मी बच्ची  का नही कोई भगवान था ??

क्या उस माँ की कोख ने उस माँ को नही धिक्कारा होगा  ?
क्या उस नवजात की चीख ने उस माँ को नही पुकारा होगा ?

आखिर क्यूँ जननी काली  से कलंकिनी  बन जाती है ? 
जन्मती है कोख से और फिर क्यूँ कूड़े पे फेंक आती है ?

गर है ये एक पाप , तो क्यूँ माँ करती है उस पाप को ?
क्या शर्म नही आती उस बच्ची के कलंक कंस रूपी के बाप को ?

बिलखते हैं, चीखते हैं मांगते हैं रो-रो कर भगवान से ,
जो की दूर हैं एक भी संतान से ,

  उस नवजात को मारने  की वजह बढती हुई दहेज तो नही ?
 कुछ बिकी हुई जमीरों के लिए लकड़ियों की कुर्सी मेज तो नही ?
कुछ बिके हुए समाज के सोच की  नग्नता का धधकता तेज तो नही ?
 इस नवजात की मौत की वजह  किसी के हवस की शिकार सेज तो नही ?

बस एक बात पूछता हूँ उस समाज से , उस माँ से ,और उस भगवान से
क्यूँ खेलते हों मूक  निर्जीव सी नन्ही सी जान से  ??

आखिर क्यूँ मानवता पे यूँ गिरी है ये गाज ?
जिस माँ ने फेंका था उस नवजात को, उसी माँ से पूछना चाहता हूँ मै  आज .. 

क्या तुमने ऐसा अधम कुकृत्य किया होता ?
अगर तुम्हारी माँ ने भी तुम्हे अपने कोख से निकाल फेंक दिया होता ??????? 

किसको खुदा और किसको तुम भगवान कहते हो ??

कभी हिन्दू तो कभी खुद को मुसलमान  कहते हो
जो कुछ बोलता नही उसे खुदा तो कभी तुम्ही भगवान कहते हो ?

जो खून से खेलता  है उसे तुम हैवान कहते हो
तो फिर किस वजेह से खुद को तुम इन्सान कहते हो ?

किसी पत्थर का कोई धर्म नही होता ,
चाहो शिव मान कर पूजा कर लो या फिर इसे मस्जिद के गुम्बद पे लगा दो ,

मरने के बाद किसी को  स्वर्ग और जन्नत में भेजने वालों
क्यूँ कहते हो कि लाश को  दफना दो या फिर आग    लगा दो  ?

खाने को तो  कसमे खाई जाती हैं इमां के सौदे में भी तो
आखिर किस ईमान को तुम मुकम्मल   ईमान कहते हो ?

बे वजह  कि उलझनों में  उलझ के रहते हो  खुद यहा
और इसे धर्म के नाम पर दिया गया इम्तिहान कहते हो  ,

जो खुद ही खुदा है  और  जो भगवान है खुद ही
उसकी  रखवाली   में  आखिर क्यूँ खुद को परेशान कहते हो ?

सरहदों में बाँटना है तो सर उठा के देख लो ऊपर
और इसे बाँटो जिसे तुम आसमान कहते हो  ,

एक दिन कहा था आकर के भगवान ने मुझसे    ' ऐ राजीव' !
"  उसे रोटी -  कपडा दो जिसे तुम  भूखा-नंगा इन्सान कहते हो .

 बताओ प्रेम से " हिन्दू नही मुस्लिम नही बस   इन्सान ही हो तुम  "
तो उस के लिए तो  तुम्ही  खुदा हो और भगवान ही हो  तुम .....................

दिल मेरा हर बार

खून  किसी के जख्म का एक दिन  ,  पोंछ  दिया था  मैंने    तो   
 देख हाथ मेरी ये दुनिया मुझको ही गुनाहगार कहे..

इश्क बहाना   है बस , दिल को अपने समझाने का
 सारी दुनिया इस  बहाने को, पता नही क्यूँ प्यार कहे ..

हर बार धोखा खाते हैं     इस बेदर्द      जमाने  से 
यही   आखिरी   धोखा   था ,  ये दिल मेरा हर बार कहे

जख्मों को सहलाने की जरुरत क्या है ? ( Part-1) Love

नही प्यार तो फिर प्यार जताने की जरुरत क्या है ?
दिल मिलता नही तो आगोश में आने की जरुरत क्या है ?

दर्द देते हैं जो जानते हैं नब्ज अपनों का ,
तो फिर बेदर्द जमाने की जरूरत क्या है ?

आँखों में उनकी दिख जाती है इंकार ऐ मुह्हबत ,
तो फिर जान-निशार-ऐ-इश्क दिखाने की जरूरत क्या है ?

छिपाए बेठे हैं अपने पहलू में आप खंजर तो
मेरे जख्मों को सहलाने की जरुरत क्या है ?

वो मुस्कुराते हैं तो सीने में तड़प उठती है
इस कदर भी मुस्कुराने की जरूरत क्या है ?

हाथों में हाथ लिए फिरते थे सरे आम सडकों पर
और कह्ते थे फ़िक्र ऐ जमाने की जरूरत क्या है ?

ताउम्र साथ ना दे पाते हैं आजकल रिश्ते
तो ऐसे रिश्तों को बनाने की जरूरत क्या है ?

गैर तो गैर हैं अपने भी आबरू पे नज़र रखते हैं .
तो फिर गैर या अपनों की बाँहों में जाने की जरूरत क्या है ?

हुश्न दिखता है चाहे कैद हों परदे में भी
फिर नुमाया करके दिखाने की जरुरत क्या है ??

महबूब की आँखों में जब यहाँ रब दिखता है
तो खुदा के दर पे जाने की जरूरत क्या है ?

सुना है आँखों में वो मयखाना लिए फिरते हैं
तो फिर बोतल से पिलाने की जरुरत क्या है ?

हवेली -ऐ- हुश्न यहाँ रोज खंडहर में बदल जातें हैं
ऐसी तुफानो में भी जाने की जरुरत क्या है ?

लुटी थी आबरू किसी की इज्जतदारों के मुहल्ले में
ऐसे इज्जतदारों को इज्जतदार कहलाने की जरुरत क्या है?

कमर कांपा था उस दिन अँधेरे में बड़ी बेदर्दी से
फिर दिन में नजाकत से यूँ बल खाने की जरुरत क्या है ?????

To be continued in next part.........

दु:शासन की बेबसी

एक दिन दु:शासन से मुलाकात हुई मेरी ,
बेबस और परेशान था जब उससे बात हुई मेरी ,

क्या हुआ दुशासन  क्या नही करते अब तुम चीर हरण ,
क्या अब नही करते तुम किसी अबला का वस्त्र हरण ,

दुशासन  मायूस हुआ और मुझसे बोला
अपने ह्रदय में कैद भावों को उसने खोला ,

हम अब कसी कौरव दरबार में जाएँ ?
वस्त्र वाली द्रौपदी  अब हम कहा से लायें ?

बेबस ,अबला, बलहीन अब कहा रही है नारी ?
कहाँ रही अब पहले जैसे वो बेचारी ?

वस्त्रों से प्रेम अब उसे कहाँ जचा  है ?
उसके तन पे वस्त्र अब कहाँ बचा है ?

कृष्ण  बन भगवान कहाँ दरबारों में जाते हैं अब ?
अर्जुन-युधिष्ठिर ही बेच द्रौपदी को बाजारों में आते हैं अब ..

अगर कुछ नारियों  कि बात मै  छोड़ देता हूँ
तो बाकियों को देख मै शर्म से मुह मोड़ लेता हूँ ,

हे नारी ! नग्नता के पास तू जितनी जाएगी
नारायणी का अपना पूज्य रूप अपना खो जाएगी

"देख आज दुशासन को भी तुम्हारी चिंता सताने लगी है
आज का तेरा रूप देख उसे भी शर्म आने लगी है ..."

मै मरघट में जब जाता हूँ

मै   मरघट  में  जब  जाता  हूँ
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मै   मरघट  में  जब  जाता  हूँ  ,
 मै  मर-घट  में  मर  जाता  हूँ  ,
 जब  मर  और  घट  न  घट  पाए..
  तो  खुद  ही  मै  घट  जाता  हूँ .//

मै  मरघट   को  समझाता  हूँ ,
 कि   मर  के  घट  न  पाउँगा  मै ,
 तुझे  आज  ये  बताता  हूँ  ,
 कि  कर  तू  मेरा  इंतजार...
  अभी  मै  कुछ  देर  बाद  मरघट  पे  आता  हूँ  ,

 ऐ  मरघट   तू   मुझे  क्या  जाने  ??
 मै  हूँ  इन्सान  एक  मरघट  का  ,
जो  मरघट  पे  तो  आता  है  ..
 पर  अपने  पीछे  एक  अद्भुत ,अविचल ,यथार्थ और
अविश्वसनीय   इतिहास  छोड़  वो  आता  है ........................

मै नारी हूँ

मै नारी हूँ
अक्सर मै इसी सोच में खो जाती हूँ
क्या मुझे वो अधिकार मिला है ?
मै जिसकी अधिकारी हूँ ?
मै नारी हूँ

 मनु कि  अर्धांगिनी मै
विष्णु- शिव कि संगिनी मै
मै अक्सर सोचा करती हूँ
क्या मै लक्ष्मी  और दुर्गा की अवतारी हूँ ??

 मै धर्म-धारण की प्रतिमूर्ति हूँ
मै सहनशक्ति की मूर्ति हूँ
जब अर्ध पुरुष हो कोई तो  मै ही उसकी पूर्ति हूँ
फिर भी जब जब पौरुष किसी का जलता है
तो सोचती हूँ क्या सिर्फ जलन की मै अधिकारी हूँ ??

जब जब दुर्योधन कोई ललकार लगाता है ,
तब तब युधिष्ठिर मेरा दावं लगाता है ,
जब हर जीत का होता है यहाँ  खेल कोई
मै आँखे मीचे खड़ी बेबस पांडव प्यारी हूँ ..

हर राम के साथ वनवास को जाती हूँ मै
और चुपचाप हर दुःख दर्द सह जाती हूँ मै
फिर भी परख मेरे चरित्र की होती है
तब चुपचाप  आग में खड़ी जनक-कुमारी हूँ .,,

जब जब पुरषार्थ किसी का हो जाता है छिन्न-भिन्न
तब तब मै पुकारी जाती हूँ चरित्रहीन
चुपचाप इसे  सुनकर मुझको शर्म खुद पर ही आती है
की क्यूँ नारी ही सारी दुनिया मै चरित्रहीन पुकारी जाती है ??

 चुपचाप प्रसव  पीड़ा नारी सह जाती है ,
हर दर्द वो बिना शिकन के सह जाती है ,
क्यूँ नारी हूँ? इसी संशय में रह जाती है ,
और समाज  में अबला खुद को कह जाती है ??

जब जब मैंने अपना भाव व्यक्त किया है
तब तब इस समाज ने रंजित रक्त किया है
जब जब कोई लक्ष्मण आवेश  में आता है
मै नाक कटी  शूर्पनखा   दुखियारी हूँ ,

पूछती हूँ मै मुझे कोख में मारने वालों से ,
क्यूँ हर घर में जलती  आई हूँ ,सालों-सालों से ??
नफरत करती हूँ मै मंदिर मस्जिद शिवालों से ,
नफरत है मुझको इन मूर्ति पूजने वालों से ..

कहने को कोई मुझको दुर्गा-काली का अवतार कहे
या लक्ष्मीरूपा और सरस्वती कोई  मुझको बार-बार कहे
छोड़ दो तुम अब किसी देवी के चरणों पे गिरना
कोख से फेंकी हुई हर नवजात बात यही बार बार कहे

व्यभिचारी  बन जब समाज  यहाँ कोई जीता है
क्या उसके लिए नही कोई धर्मग्रन्थ,कुरान और गीता है .?????


( नारी-जगत  को समर्पित मेरी आगामी काव्यसंग्रह  " नारी तू नारायणी " से )
( सर्वाधिकार सुरक्षित द्वारा राजीव कुमार पाण्डेय )

देख गमों को मेरे वे मुस्कुराते बहुत हैं

उनके गमले में खुशबु हैं बिखरे हुए ,
मेरे दामन हैं काँटों से निखरे हुए ,
वो मखमल की सेजों पे भी रोते हैं,
चेहरे धुल में हमारे रहते हैं निखरे हुए,


देख गमों को मेरे वे मुस्कुराते बहुत हैं,
चलो इसी बहाने उन्हें मुस्कुराना आ गया,
मेरे दर्दों को सुन उन्हें शुकून मिलता है ,
इसी बहाने मुझे गजल अब गाना आ गया,


मेरे क़दमों के निशां पे वे चलते थे कल ,
और कहते थे उनको जीना आ गया,
आज देखा मैंने उनको ऐसे लिबास में
की दिल में चुभन माथे पे मेरे पसीना आ गया,


ये रस्मों रिवाजों का खेल है ,
धुल से उठ खिल गया कोई बागों में ,फूल में
कोई रिश्तों के चादर में उलझा रहा ,
कोई गुम हो गया एक ही भूल में ,


मैंने देखा उन्हें आज बड़े गौर से,
लगा उनका भी बहुत कुछ है खोया हुआ ,
वो शीशे के महलों में भले सोते हों ,
पर चेहरा उनका भी था रात भर रोया हुआ ,


उनकी नजरों ने मेरी नजर से कहा,
की ज़माने हुए मुझे चैन से सोये हुए,
तुम तो गजलों और गीतों में खोये रहे और,
दिन हुए बहुत तुम्हारे कंधे पे मुझको सिर रख के रोये हुए


क्या कहूँ मै रस्मों रिवाजों में इस कदर खो गया ,
कि अरमान "राजीव " के, रेत की तरह हैं आज बिखरे हुए ,
आज जाते हैं पर मुझको कसम ये रही की ,
जरुर आयेंगे हम और हटायेंगे हम ,
जुल्फ गालों पे कल जो होंगे तेरे बिखरे हुए


कौन कहता है की गजल गीतों से इतिहास नही बदलता ?


कौन कहता है की गजल गीतों से इतिहास नही बदलता ?
कभी गौर से कलम की ताकत तो देखिये ,
जब-जब लिखी है हमने इबारत कोई, स्याही के बदले खून से ,
तब तब हमने इतिहास के पन्ने बदल दिए ......

मेरी गजलों के साथ कुछ खाली पन्ने रख, मेरी चिता को आग लगा देना ....

ऐ ऊपर  वाले तू मेरी दुआओं का बस एक सिला देना ,
मै ये नही कहता की मुझको एक बार फिर से  जिला देना ,
जब मौत आये तो बस दुनिया वालों  तुम कलम की चिता बना देना
मेरी गजलों के साथ कुछ खाली पन्ने रख, मेरी चिता  को आग लगा देना ....

क्यूँ तुम किसी नारी से फरियाद करते हो ???

तुम दुर्गा की पूजा करते हो तुम काली को याद करते हो ,
एक बेटे के लिए फिर क्यूँ तुम किसी नारी से फरियाद करते हो ?
कभी सोचा है की अगर तुम्हारी माँ को मारा होता उसके भी माँ-बाप ने
तो तुम्हारा वजूद नही होता ,जिस पे तुम इतना नाज करते हो ....

सरदार भगत सिंह के आत्मा की आवाज

एक दिन कलम ने आके चुपके से मुझसे ये राज खोला ,

कि रात को भगत सिंह ने सपने में आकर उससे बोला,

कहाँ गया वो मेरा इन्कलाब कहाँ गया वो बसंती चोला ?

कहाँ गया मेरा फेंका हुआ, मेरे बम का वो गोला ?


आत्मा ने भगत के आकर कहा , ये देख के हम बहुत शर्मिंदा हैं,

कि देश देखो आज जल रहा है,और जवान यहाँ अभी भी जिन्दा हैं ??


देख के वो रो पड़ा इस देश की अंधी जवानी ,

क्या हुआ इस देश को जहाँ खून बहा था जैसे हो पानी ,


खो गया लगता जवान आज जैसे शराब में ,

खो गया आदतों में उन्ही , जो आते हैं खराब में ,


कीमतें कितनी चुकाई थी हमने, ये तो सब ही जानते हैं

तो फिर इस देश को हम आज , क्यूँ नही अपना मानते हैं ?


देश के संसद पे आके वो फेंक के बम जाते हैं ,

और खुदगर्जी में हम सब उन्हें अपना मेहमां बनाते हैं ,

भूल गये हो क्या नारा तुम अब इन्कलाब का ???

जो पत्थरों के बदले में भी थमाते हो फुल तुम गुलाब का ?


मानने को मान लेता मानना गर होता उसे ,

जान लेता हमारे इरादे गर जानना होता उसे ,


आँखों में आंसू आ गया, देख के अब ये जमाना ,

लगता है आज बर्बाद अब , हमको अपना फांसी लगाना ,


ऐ जवां तुम जाग जाओ तुम्हे देश ये बचाना होगा ,

आज आजाद और भगत बन के तुम्हे ही आगे आना होगा


ऐ जवां तुम्हे नहीं खबर ,कि जब-जब चुप हम हो जाते हैं

देश के दुश्मन हमे तब-तब, नपुंसक कह- कह कर के बुलाते हैं


उठो और लिख दो आज फिर से, कुछ और कहानियाँ ,

कह दो जिन्दा हैं अभी हम और सोयी हैं नही जवानियाँ,


गर लगी हो जवानी में, जंग, तो हमसे तुम ये बताओ ,

या खून में उबाल हो ना , तो भी बस हमसे सुनाओ


एक बार फिर से हम इस मिटटी के लाल बन के आयंगे ,

एक बार इस देश को अपनों के ही गुलामी से हम बचायेंगे ,

नारा इन्कलाब का हम फिर से आज लगायेंगे ..


पर ये सवाल हम आप से फिर भी बार-बार दुहराएंगे

कि आखिर कब तक ?? आखिर कब तक ?

इस देश के जवां कमजोर और बुझदिल कहलाते जायंगे.....

इसको बचाने खातिर कब, तक भगत सिंह और आजाद यहाँ पर आयंगे ???


सर्वाधिकार सुरक्षित @राजीव कुमार पाण्डेय ( द्वारा पूर्वप्रकाशित )

दिल आज अब करता है मेरा थोडा-थोडा


वो हमे देख के मुस्कुराते हैं अब भी थोडा-थोडा ,
और हम ये सोच के रह जाते हैं कि दिल क्यूँ तोडा,



जो सीने से लगा करते थे दौड़ के आकर ,
वो दूर हुए क्यूँ और आखिर क्यूँ मुह मोड़ा,

लगता है मुझको भी अब कुछ-कुछ और थोडा-थोडा ,
कि उसने नही मैंने ही उसका दिल तोडा,

मुझे पता ना था की वो ख्वाहिस -ए- जिस्म लेके आते थे ,
हम तो बेवजह उनकी आँखों में डूब जाते थे ,

अब वो दूर हैं तो महसूस होता है थोडा थोडा
कि ख्वाहिस-ए-जिस्म कि उनकी मैंने क्यूँ तोडा

उनकी होठों कि प्यास क्यूँ ना मैंने महसूस किया
बे आबरू होने कि उनकी चाहत को मैंने क्यूँ छोड़ा ????????

दिल आज अब करता है मेरा थोडा-थोडा,
कि वो लबों पे लब रखे और मै बाँहों में भरूं उसको ,
और रात बीते चुपके चुपके , धीर धीरे और थोडा-थोडा ..

From my lover's poem collection " Tere Liye "

कलम में खून भर के लिखते हैं, तो आज भी इन्कलाब लिखते हैं

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खो गये कहाँ आज गजल कहने वाले ,
पत्थर  की दीवारों को ताजमहल कहने वाले,
कब्र में दफना कर या फिर चिता को  आग लगाकर ,
और सो जाते हैं चैन से  यहाँ मौत  को जिन्दगी का  हमसफ़र कहने  वाले

हर रात खौफ में सोता है यहाँ सन्नाटा
और   दिल को बहलाते हैं   इसे  शुकून  भरा शहर  कहने वाले ,

मारते देखा मैंने उन्हें ही  अपनी संतानों को इज्जत के नाम पर.
और इज्जत कि बात करने लगे गैरों कि  आबरू पे नज़र रखने वाले ..

डर लगता है आज सच्चाई के नाम पे लड़ने वालों को
यूँ तो आज भी रखते हैं अपने  पहलु में  खंजर रखने वाले ..

हर चीज दिखेगी अपनी तुम  अपनी नज़र से देखो तो ,
कभी नज़र को बदल तो लो हर चीज पे बुरी नज़र रखने वाले ..

जीते हैं वो भी जो सोते हैं यहाँ भूखे नंगे
कभी नज़र उनपे भी करो  अपनी  झोली में सारा शहर रखने वाले ..

लिखने को आज भी वो उनके  लबों को गुलाब लिखते हैं
और जवानी को चढ़ता  हुआ शबाब लिखते हैं ..

तुम्हे क्या खबर को जिन्हें हासिल   नही मुहब्बत
वहीं दूसरों के लिए मुहब्बत की  किताब लिखते हैं ..

वो आज भी लिखते हैं तो परदे का हुश्न नुमाया होता है
और नापाक मस्ती को वो रात में  मसला हुआ गुलाब लिखते हैं

तुम्हे खबर  नही कि  आज भी लिखते हैं तो उठता है कोई जलजला यहाँ
और कलम में खून भर के लिखते हैं तो आज भी इन्कलाब लिखते हैं ,

खो गये हों कहाँ  ऐ चाँद को महबूब कहने वालों
कह दो महबूब से कि करना हमारा  तुम इन्तजार
बस आजकल हम इतिहास की एक नई किताब लिखते हैं ,
जिस खंजर पे मौत लिखते थे तुम से दूर होने के नाम पर
आजकल उसी खंजर पे हम देश के दुश्मनों का हिसाब  लिखते हैं


गर आये मौत तो तुम आना मेरी जनाजे पे
और कहना खुश होकर कि मजिल को गये देश के नाम सफ़र करने वाले
तुम्हारे चेहरे को चाँद  कहेंगे हम , जब  तुम हमसे मिलने आओगी
अगर  कतरा अपने खून का इस देश के तुम नाम कर जाओगी .....


राजीव कुमार पाण्डेय
from my collection "Desh Ke Khatir "
copyright reserved @Desh Ke khatir 

"बिक रहे हैं कौड़ियों के मोल कफ़न आज भी " ...

मौत  देखिये  इंसानियत  से डर रहा है आज भी ,
रखवालों के हाथ में खंजर रहा है आज भी ,

खुद को मारा है इन्सान ने, अपने  जमीरों को दे सजा ,
कि आँखों के सामने उसके,लाशों का मंजर रहा है आज भी ...

जिन दरख्तों से काट दी हमने हजारों  डालियाँ ,
उन दरख्तों की गवाही देखिये कि, वहां बंजर रहा है आज भी,

खुद की तबाही का सबब जब रहा है तू यहाँ ,
फिर क्यूँ रोता हुआ , रात भर रहा है आज भी ??

हो रहे हैं सर कलम इंसानियत और ईमान के,
बिक रहे हैं देखिये जनाजे और कब्र इन्सान के ,

देख के मुस्कुरा रहे हम अपना ही दफ़न आज भी
बिक रहे हैं कौड़ियों के मोल कफ़न आज भी .........

क्षितिज के उस पार

तुम  बुलाते हो,
 क्षितिज के उस पार से ,
हमे  वक़्त नही मिलता है,
खेते हुए पतवार से,
 एक कोशिश है,
 जो मुझे उस पार लेके जाएगी ,
शायद यही सोच ,
तुमसे मिलने के ,
इन्तजार में ,
हसीं स्वप्न   की तरह से जिन्दगी गुजर जायेगी ......

Sunday 18 September 2011

जिन्दगी एक सफ़र है

जिन्दगी एक सफ़र है लोग मिल ही जाते हैं ,
वक़्त के बागों में कुछ फूल खिल ही जाते हैं ......
रिश्तों की हिफाजत दिल से करना मेरे दोस्तों ,
सुना है गुनाहों के हिसाब करने को खुदा के पास सिर्फ दिल ही जाते हैं ...

ख्याल रखना

मुझे अब भी याद है वो बारिशों का मौसम ,
तुम्हारे सुर्ख  होंठो पे दर्द और आँखे थी नम,
पर एहसास  अब भी कुछ नही था कम ,
याद है तुम्हारा वो  देखना मेरी आखों में ,
और तुम्हारा कहना कि ,
" चलती हूँ ख्याल रखना मेरी तरह अपनी भी सनम "  

Wednesday 14 September 2011

हसरत ( गजल )

कौन कहता है की आज हम परेशान बहुत हैं.
हमारी हसरतों को तोड़ने वाले वैसे इन्सान बहुत हैं,
हमने हर किसी की ठोकर को सीने से  लगाया है .
वैसे  सीने से लगाने वाले भी  इन्सान बहुत हैं,
किसको कहें अपना और किसको कहें गैर,
वैसे अपनों से ज्यादा  गैरों के एहसान बहुत  हैं ,
वो मुस्कुरा के मिलते हैं और सीने से लग   जाते हैं .
पर  फिर भी  लगता है दूरियां हमारे दरम्यान बहुत हैं,
हमारी  हर गजल को वो अश्कों का सामान कहते हैं ,
पर गजल की हर रदीफ़ में मेरे अरमान बहुत हैं ,
वो दूर होते हैं और हमारा दिल नही लगता .
वैसे दिल लगाने के लिए तो सामान बहुत हैं ,
वो चाँद हैं ऐसा तो मैंने हर शख्स   से सुना था .
कहने को तो यूँ उनके लिए आसमान बहुत हैं  ,
झोंका हवा का आया और दिल ये खंडहर हुआ ,
वैसे तो आने को  तो आते  रोज ही तूफान बहुत हैं
उनसे   लबों की  आरजू की  हिफाजत नही होती
वैसे उनसे कहने वाले भी बेजुबान बहुत हैं ,,
ऐ "माहिर "    तू लिखता है हसरत से इस कदर
तुम्हे खबर नही ऐसे हसरतों को लिए जनाजे और शमशान बहुत हैं ......
राजीव कुमार पाण्डेय "माहिर "

Monday 12 September 2011

शहर के हालात

सुना  है  अब इस शहर  के   हालात  बदल  गये  हैं ....
कुछ   हम  बदलना   पड़ा   खुद  को  और  कुछ  वो  भी  बदल  गये  हैं

अब इस शहर -ए - नामुराद से गिला करते हैं

लोग  इस  कदर  से  अब  इस  शहर -ए - नामुराद  से  गिला  करते  हैं ....
कि  मोमबतियों  के  उजाले  में   महबूब  से   मिला  करते  हैं ...
रिश्तों  की  दरारें  या  दरारों  में  है  रिश्ता  ,ये  समझ  नही  आता   ....
हर  रिश्तों  को  तो   अब  लोग  वक़्त  का  पैबंद  लगा  कर  सिला  करते  हैं .......

फैसला करते थे मेरी वकालत पे

वो किसी दिन  अपनी जिन्दगी का फैसला करते  थे मेरी वकालत पे,
और सुना है वो अब हम पर मुजरिम होने का इल्जाम लगाये फिरते हैं....

वक़्त रहते संभल जाओ तो अच्छा है

जमीन बोली एक दिन जमी पे रहने वालों से
की वक़्त रहते संभल जाओ तो अच्छा है .
वरना आसमां किसी को पावं रखने के लिए मयस्सर नही होता ..........

हंगामा

उन्हें  हंगामा   खड़ा  करने  से  ही   फुर्सत  नही .....
सूरत  बदली  या   नही , ये  सूरत  देखने  वाले  सोचेंगे ....

शहर लगता है

ये  शहर  लगता  है  आजकल  मुस्ताक- ए -इश्क .....
पारसा  पहुंचा   जुज्वो-कुल  फरमा  के  इश्क ........

कवादत

रिश्तों  को  बचाने  की  इंसानी  कवादत  तो  देखिये ....
कि  वो  अब  कातिलों  से  भी  मुस्कुरा  के  मिलते  हैं ......

इंतजाम -ए -इबादत


इसको  इंतजाम -ए -इबादत  कहें  या  फिर  हरकत -ए -बेवकूफी .........
कि  पत्थर  में  खुदा  ढूंढते   हैं  और  कैद  कर  देते  हैं  उसे  मिटटी  की  दीवारों  में  ...

Saturday 10 September 2011

नजर

नजर कि नजर में जो आते हैं
लाखों में एक वे ही नजर आते हैं
लगी है यह भीड़ नजर कि मगर
एक ही नज़ारे बार बार नजर आते हैं ,
बेठे थे हम कि मिल जाये नजर एक बार
बार बार वे नजर से गुजर जाते हैं ,
देखते हैं यह हम नजारे हजार
सब नज़ारे नजर में ही रह जाते हैं
कह नही पते अपनी दास्ताँ ऐ जिगर
होने वाला नही है उनपे कोई असर
जिगर यह टुकडों में बिखर जाते हैं
साकी ना उठाना नजर बार बार
रोज लाखों के नजर यह उतर जाते हैं
खो ना जाये नजर इस नजर कि भीड़ में
चली जाये ना मैना वापस नीद में
एक नजर ने किया लाखों को घायल मगर
राह चलते उठती थी फिर भी लाखो नजर
लाज से नीची होती थी उनकी नजर
मेरी तबाही का सबब बनी उनकी नजर
तबाही का ना हुआ उनपे कोई असर
नजरें तरसी थी दो आंसू के खातिर मगर
उठ ही ना पाई मुझ पर उनकी नजर
एक तरफ था मेरे जनाजे का मंजर
उनके घर हो रहा था शहनाई का असर
छोड़ दुनिया को मई जा रहा था मगर
जा रही थी वो छोड़ अपने बाबुल का घर.....

कौन भिखारी ?

मैंने  देखा ,
 वो  कुछ  मांग  रही  थी
शायद वह  कुछ  मांग  ही  रही  थी  ,
मैले   कुचैले  पते   वसन   में
लज्जा  से  मारे  सिकुडे  तन  में
आंसू  भरे  हुए  नयन  में
 वो  वुभुक्षा कि  आग  में  जल  रही  थी
प्रकृति कि  क्रूरता मे  पल  रही  थी  
आदमियत का  माखौल उडाते  हुए
खुद  को  जानवर में  बदल  रही  थी
इंसानियत को  जानवर  में  बदल  रही  थी
इंसानियत  को  शायद यही  बात  खल  रही  थी
अपने  मैले  पते  वसन  से
अपने  तन  को   ढँक  रही  थी
पेट  के  खातिर ही  सही
 हाथ  सबके  सामने  पटक  रही  थी  .
अदम्य  क्रूरता  की  प्रतीक  थी  नारी
दुसहासी  थी  या   थी भूख  की  मारी
लोग  कह   रहे  थे  उससे
दूर  हटो  तुम  , अरे  भिखारी   !
दूसरी  ओर  मैंने  जो  देखा
समाज  भी  भूखा  ही  था
पेट  का ??
 नही  नही वासना  का  
वह  मांग  रहा  था  वासना  की  भीख
समाज  की  आँखों में  दया  भी  ना  थी
लोक  लाज  और  ह्या  भी  ना  थी
वह  चला   रहा  था   फब्तियों  का  तीर
जो  बढा  रहा  था    कलेजे का  पीर
वह  हंस  रहा  था
दुसरे  की  बेबसी  पर
दुसरे  की  तड़प  पर
और  शायद
अपनी  असमर्थता   और कायरता पर भी ,
आज मै सोचता  हूँ
क्या था ? मै उस दिन
 उसकी सहायता  का अधिकारी    ?
कौन था भिखारी ?
वह  समाज   या  वह  बेबस  नारी  ???

महिला सशक्तिकरण

आज शहर के चौराहे पर
एक सभा हो रही थी
इस सभा का सञ्चालन
एक महिला कर रही थी
उसने कहा सुनिए हमने आज आम सहमति है बनाई
महिलाओं को सशक्त बनाने की आज है जरूरत आई ,
फिर उन्होंने एक सज्जन को पुकारा
जिन्होंने वहा बैठे सरे श्रोताओं को ललकारा
उन्होंने कहा,
हमें हर साल
महिला सशक्तिकरण वर्ष मनाना चाहिए
आज की नारी को उसका हक़ दिलाना चाहिए
तभी किसी श्रोता ने कहा
जरा मेरे प्रश्न का जवाब दे जाइये
एक बार जरा मुझे भी ये बताइए
कल रात को आपने कौन सा पर्व मनाया था ?
क्यूँ आप सब ने मिल कर अपनी बहू को जलाया था ?

ये इश्क मुहब्बत प्यार की बातें

ये इश्क मुहब्बत प्यार कि बातें ,
बाकी हैं बेकार कि बातें ,
कल तक मै ये कहता था .
यादों में खोया रहता था,
.
अब भी खोया रहता हूँ ,
सोकर भी जगा मैं रहता हूँ ,
जगकर भी सोया रहता हूँ ,
अब भी करती परेशान मुझे ,
पता नही क्यूँ प्यार कि बातें .
.
वो पहली बार नजरों का मिलना,
वो पहली बार इजहार कि बातें ,
wo नजरों से इकरार कि बातें ,
और होठों से इनकार कि बातें ,
.
अब भी याद जब उसे करता हूँ ,
तकिया बाँहों में भरता हूँ ,
कल दूर हुआ तो दिल रोया था ,
अब पास जाने से डरता हूँ
.
फिर भी करती परेशान मुझे ,
उसके आने के इन्तजार कि बातें ,
वो कैंटीन के कोने में बैठ ,
करना, प्यार और मनुहार कि बातें ,
.
जब इश्क ने बहुत सताया था
तब दिल को बहुत समझाया था
दिल को करने के लिए हल्का ,
तब माँ बाबूजी को बताया था ,
.
दिन याद है मुझे वो अब भी ,
वो बाबूजी की डांट फटकार कि बातें ,
याद है मेरा वो चुप रहना ,
और वो माँ-बाबूजी का कहना,
कि ये इश्क मुह्हबत प्यार कि बातें ,
ये सब हैं बेकार कि बातें ….
.
पर जब इश्क कोई फ़रमाता है ,
तो इश्क खुदा हो जाता है ,
दुनिया कि फिक्र को छोड़ ,
तब वो अपने में खो जाता है,
.
पर मै तब बहुत रोया था ,
उस रात मैं नही सोया था ,
भूल नही पाता है कोई ,
वो पल और वो हसीं मुलाकातें ,
वक़्त कि राहों में गुम हो गयी ,
वो हँसते दिन वो चांदनी रातें ,
.
अब पता नही क्यूँ डरता हूँ ,
मैं इश्क के किसी तराने से
ये इश्क सिर्फ एक धोखा है ,
बस यही कहता हूँ जमाने se ,
.
jo दूर है इससे, वो पछताये ,
जो पास इसके, वो रोता है ,
कुछ खोने वाला कुछ पा बैठा ,
कुछ पाने वाला कुछ खोता है
.
इसलिए कहता है “राजीव “
कि तुम रोक लो अपनी जजबातें,
ये इश्क मुहब्बत प्यार कि बातें ,
ये बस हैं बेकार कि बातें
ये इश्क मुहब्बत प्यार कि बातें ,
ये हैं बस बेकार कि बातें !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

ए ताजमहल पे आने वालों

ए ताजमहल पे आने वालों ,
जरा हमे याद तुम कर लेते ,
गर हाथ हमारे होते तो ,
महबूब को बाँहों में भर लेते ,
माना शहंशाह था वो जो ,
वो इश्क किसी से करता था ,
अपनी बेगम कि चाहत में ,
वो दिलो जान से मरता था,
हम अपनी मुहब्बत के खातिर ,
अपनी जान लुटा देते ,
गर हात हमारे होते तो ,
रोज दो चार ताज बना देते,
पर शहंशाह था वो जो,
शायद हमारे इश्क से डरता था,
हर दिल रखता है एक मुमताज़ यहाँ ,
फिर क्यूँ वो बेवजह इश्क का दम भरता था,
दामल को छूने कि ख्वाहिस थी जिन हाथों को ,
उन हाथों को कटवा डाला ,
उसने ताज बना कर के ,
कितनों के इश्क का मजाक उड़ा डाला ,
गर आज होते हम इस दुनिया में,
तो दुनिया को हम ये दिखा देते ,
इश्क में ताज बनवाना जरूरी नही ,
सारी दुनिया को ये सिखा देते ,
गर हाथ हमारे होते तो रोज दो- चार ताज बना देते !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

तुझे मै क्या लिखूँ

सोचा मैंने की तेरे होठो पे एक गजल लिखूं
कोई हसींन तो कोई नाजनीन कहे ,
तुम्हे देखु तो लगे की तुम्हे खिलता हुआ कमल लिखु ,
सोचता हू तुझे मैं बया करू कैसे ,
बेदाग हसीं को चाँद मैं कहू कैसे
यू तो जिन्दगी बिताता हूँ तेरे ख्यालो में
अगर खुदा पूछे तो जिन्दगी को भी मैं एक पल लिखू
हर कोई तुम्हारे आने की आहट का इंतजार करे
तुम इंकार करो पर वो बार बार इजहार करे
चाहत तो हम भी रखते हैं आप के दीदार ए नूर का
इन्सान हैं पर आरजू रखते हैं जन्नत ए हूर का
सोचता हू की दिल की आवाज सुनाऊ कैसे
अपनी जबान को मूहब्बत का साज बनाऊ कैसे
इसलिए सोचा की तेरे हुस्न पर ही कोई गीत या गजल लिखूँ,
और उस गजल को ही अपने चाहत का ताजमहल लिखूं

मेरा बचपन लौटा दे

लौटाना है आज मुझे तो मेरा बचपन लौटा दे ,
खुशियों का वो छोटा आँगन , वो प्रेम का उपवन लौटा दे .
लौटाना हे आज मुझे तो मेरा बचपन लौटा दे ,
हर दिन होली हर रात दिवाली , दिन वो बचपन लौटा दे.
याद है मुझे ,
दादा जी के साथ बगीचे में वो जाना ,
पेड़ों के झुरमुट में जाकर छिप जाना ,
दादा जी का मुझको अपने पास बुलाना ,
और मेरा उनके अचकन में जा कर छिप जाना ,
लौटाना है आज मुझे तो दादा जी का वो अचकन लौटा दे ,
लौटाना है आज मुझे तो मेरा बचपन लौटा दे ,
ख्वाबों का संसार मुझे कोई लौटा दे ,
माँ कि थप्पड़ का प्यार मुझे कोई लौटा दे ,
पहली बार देखा था, जिसे चौबारे पर ,
आज वो परी अनजान मुझे कोई लौटा दे
उसकी शर्म से लाल गाल ,और झुकी हुई पलकें ,
अब भी करती परेशान मुझे कोई लौटा दे ,
पहली बार जवानी को देखा था मेने जिस दरपन में ,
हो सके तो एक बार वही दरपन मुझको लौटा दे ,
लौटाना है आज मुझे तो मेरा बचपन लौटा दे ,
चौबारे का निश्छल प्यार और वो प्रेम का उपवन लौटा दे
लौटाना है आज मुझे तो मेरा बचपन लौटा दे ,

अभी नही पर कभी तु मुझ पर मरती थी की नही,

अभी नही पर कभी तु मुझ पर मरती थी की नही,
दिल में मेरा नाम ले कर के आन्हे भरती थी की नही,
माना आज बेगानी बन गयी है तु,
एक अजनबी के दिल की रानी बन गयी है तु
ये बता दे प्यार तु मुझसे कभी करती थी की नही
होंठो पे ले के नाम , कभी आन्हे तु भी भरती थी की नही
याद है मुझे ,
सीने से लगा के किताबों को जब तु कॉलेज आती थी,
सीने से लगने का ख्वाब मेरा , तु तोड जाती थी,
तुझे अकेले देख मेरा दिल पता नही क्यूँ मचलता था,
तू मेरी बाँहों में आने को कभी मचलती थी की कि नही
याद मुझे हे पहली बार मैने तुझे आँखों आँखों में छेड़ा था
गुस्से में तुने तब आँखों को तरेरा था ,
तब से मैं तुझसे बातें करने से डरता था
तू बता की कभी तू मुझसे डरती थी की नही
होंठो पे लेके नाम मेरा तू आंहे भरती थी नही,
ये बता दे तू प्यार मुझसे करती थी की नही .
याद है उस दिन तेरा छिपकर नजर मिला जाना
आँखों आँखों में कुछ कह जाना , और कह कर के फिर शर्माना ,
ये बता की उस वक्त तू मुझसे शर्माती थी की नही.
दुपट्टे का कोना होंठो से दबाती थी की नही ..
में तकिया बाँहों में ले कर रात रात भर जगता था
तू बता कि कभी मुझे तू ख्वाबों में लाती थी कि नही
कहती थी कि “राजीव” कि में दुनिया वालों से डरती हूँ.
अब बता कि तू उसके बाद किसी को बाँहों में भरती थी कि नही, .
.अभी नही पर कभी तु मुझ पर मरती थी की नही,
दिल में मेरा नाम ले कर के आन्हे भरती थी की नही,

ए ताजमहल पे आने वालों

ए ताजमहल पे आने वालों ,
जरा हमे याद तुम कर लेते ,
गर हाथ हमारे होते तो ,
महबूब को बाँहों में भर लेते ,
माना शहंशाह था वो जो ,
वो इश्क किसी से करता था ,
अपनी बेगम कि चाहत में ,
वो दिलो जान से मरता था,
हम अपनी मुहब्बत के खातिर ,
अपनी जान लुटा देते ,
गर हात हमारे होते तो ,
रोज दो चार ताज बना देते,
पर शहंशाह था वो जो,
शायद हमारे इश्क से डरता था,
हर दिल रखता है एक मुमताज़ यहाँ ,
फिर क्यूँ वो बेवजह इश्क का दम भरता था,
दामल को छूने कि ख्वाहिस थी जिन हाथों को ,
उन हाथों को कटवा डाला ,
उसने ताज बना कर के ,
कितनों के इश्क का मजाक उड़ा डाला ,
गर आज होते हम इस दुनिया में,
तो दुनिया को हम ये दिखा देते ,
इश्क में ताज बनवाना जरूरी नही ,
सारी दुनिया को ये सिखा देते ,
गर हाथ हमारे होते तो रोज दो- चार ताज बना देते !!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

एहसास

पता  नही  अब  भी उससे  क्यूँ  डरता  हूँ  मै
जब  दूर  नजर  आती  है  आहें  भरता  हूँ  मै
पास  अगर  आ  जाती  , कितना  अच्छा  होता
पास  आ  जाती  है जब  तो  डरता  हूँ  मै

हर  रात  गुजरती   पल  पल  अब   तो  तन्हाई  में
ख्वाबों  में  उसके , इंकार  और  रुसवाई  में
पल  पल  अकसर  महसूस  उसे    करता   हूँ  मे 
उसका  अक्स  बना  बाँहों  में  भरता  हूँ  मे

हर  साँस  में  पास  पास  वो  लगती  है
कोमलता  का  एक  एहसास   वो  लगती  है
यूँ  तो  अकसर  जेहन  में  बहुत  तस्वीरें  हैं
पर  उनमे  सबसे  खास  वो  लगती  है


छू  देती  गर  होठों  से  , कितना   अच्छा  होता
बस  यही  सोच  होठों  को   भींचा  करता  हूँ   मे
पौध  कभी  तो  वृक्ष    बनेगा  यही  सोच  कर
नेह  और  स्नेह  से  सींचा  करता  हूँ मै

अकसर  जब   मेरे  पास  वो   आती  है
दुपट्टे  से  तेज  धडकनों  को  अपने  छुपाती   है
कमनीय  काया  अकसर  जब  बल  खाती   है
नैनों  को  झुका  कर  के  शर्माती   है 

हालात   इस  कदर  हुयें  हैं  अब  आशनाई  में
बदन  रह  रह  के  कांप   जाता  है  रजाई  में
तकिया  सीने  से  लगा  फिर  होठों  से  छुआ  करता  हूँ
अक्सर  उस  मखमली  काया  को  बाँहों  में  भरता  हूँ 

वह  हकीकत  में   नही  तो  ख्वाबों  में  सांसों  के  पास  तो  है
उसके  बदन  से  उठाते  हर  उफान   का  मुझे  एहसास  तो  है


वो  कुछ   नही  कहती  है  मुझे
अठखेलियाँ  साथ   उसके  कितनी  भी  करता  हूँ  मै
पर  कर  नही  पाया  बयाँ   दिल  के  अरमान  को
क्यूंकि  अरमानो  के  टूटने  से  बहुत  डरता  हूँ  मै . 
 

दुश्मन की तरह

हम  एक   फूल  हैं   नाज  ऐ गुलशन   की  तरह    
जो  महकते  हैं  आँगन  को    भी  उपवन  की  तरह
कहते  हैं  सब  की  मै  तेरा  होता  ही   कौन   हूँ

हम  बसाते  हैं  उन्हें   दिल  मै  धड़कन  की  तरह 

जब  आता  है  कोई  , तो  बहार   आ  जाती  है  जिन्दगी  मै 
पर   बीत  जाती  है  वह  भी  बचपन  की  तरह 
किसी  ने  फेंका  था  लकडी  समझ  कर  सड़कों  पर 
किस  ने  उठा   माथे  से   लगाया   था   चन्दन  की  तरह
कांपते  देखा  किसी   ने  मुझे  तो  उढ़ाया     चादर 
कोई  आया  तो  उसे  लपेट  गया  कफ़न  की  तरह 
किसी  ने  पूछा  कालिख  क्यूँ  लगाया   है  अपने  चेहरे   पर 
मेने  तो  आँखों  मै  लगाया  था   उसे  अंजन  की  तरह 
लोग  कहते  हैं  की  हमे  आदमी  की  पहचान  है  नही 
हम  हर  चेहरे  को  देखते  हैं   दर्पण  की  तरह 
हम  से    तो  ना   जाने  लोग   क्यूँ  लड़ते  हैं  रोज 
हम  भूल  जाते     हैं   छोटी  सी  अनबन    की  तरह 

जरा  मेरे  सीने  पर  निशान  ‘ ऐ   खंजर   तो   देखो

ये  आपसे  पूछती  हैं  शायद   ‘

उस दिन  क्यूँ  मारा  था  आपने  राजीव  को  दुश्मन  की  तरह …  
 

Friday 9 September 2011

मै क्यूँ किसी को अपना नही बनाता ??

मै  किसी  को   कभी  अपना  नही  बनाता,
सब  पूछते   हैं  पर  मै  बता  नही  पता,

सबसे  पहले  मैने  मिटटी  का  घरोंदा  बनाया  था,
उसे  मैने  बगीचे  के  फूलों  से  सजाया  था ,
तभी  कुछ  देर  बाद  ही  बरसात  हो  गयी  थी ,
मेरी  मिटटी  की  गुडिया  बर्बाद  हो  गयी  थी  ,

फिर  मैने  लकडी  का  एक  मंदिर  बनाया  था ,
,मैने  उसमे  घी  का  दीपक  जलाया  था 
तभी  हवा  के  झोंके  से  उसमे  आग  लग  गयी  थी
मेरे   अरमानो  की  मंदिर   जलकर  खाक  हो   गयी  थी
पर  फिर  भी  मैने  कभी  भी  हार  नही   मानी
इस  बार  मैने  एक  बडी  बात  ठान  ली
मैने  सफ़र  के  एक  राहगीर  को  साथी  बनाया
उसने  मुझे  अपनी  बारात  में  बुलाया 
वहा  पहुंच  कर  मै  फिर  हाथ  मल  रहा  था
बारात  के  जगह  पर   उसका  जनाजा  निकल  रहा  था 
क्या  आप  फिर  भी  कहेंगे  कि  मुझे  अपना  बनाइए
मै  कहता  हूँ  इसलिए  मुझे  अकेला  छोड़  जाइये 
मै  इसलिए  किसी  को  कभी  अपना  नही  बनाता
और  सफ़र  पर  मै  अपने  अकेला  ही  निकल  जाता 

चिराग एक कब्र का

मै  आज  खडा  हूँ  जिस  कब्र  पर  ,
वह   कब्र  किसी    देश  के   सिपाही  का  है  ,
यह  एक  तोहफा  गैरों  के  तबाही  का  है,
यह  जो  चिराग  इसके  पास  जल  रहा  है,
 आते  जाते  हर  रूह  को   ये  बता  रहा  है  ,
यह  मजार  भी  किसी  महबूब  के  माही    का  है,

 कह  रहा   है  यह  पास  आने  वाले    हर  राहगीर  से,
कभी  भी  मेरी  याद  मै  आंसू  ना  बहाना  ,
गर  हो  सके  तो  देश  के  वास्ते  एक  कतरा  खून  बहा   जाना,
कहता  है  इससे  बढ़  के   क्या  कुछ  और  होता  है,
 अरे  हर   आदमी  ही  तो  देश  का  सिरमौर  होता  है,

कल और आज

कल  मै  सब के   पास  जाता  था  
 कोई  तो   अपना   बनाएगा  मुझे,
यही  सोच   साथ  साथ  जाता  था,
जब  होती  थी  नही  फूलों  से  दोस्ती,
तब  मै  काटों  के  पास  जाता  था,
कल  मै  अरमानो   की  सीढ़ी  बनाता  था,
पर  ऍन  मौके  पर  वो  भी  टूट  जाता  था,
कल  मै  गिरे  हुए  को   उठाता  था,
 पर   वह  भी  मुझे  बैशाखी  थमता  था,
दूसरो    को  हँसाने  के   लिए,   
कल  मै  अपना  गम  छिपाता   था, 
इस  तरह    से   मै  अपना  कल  बिताता  था,  

पर  आज
मै  जब  जब   अकेला  रहना  चाहता  हूँ,
 ना  जाने    सब  लोग  क्यूँ  मेरे  पास  आते  हैं,
 मै  जब  कहता  मेरा  अपना  नही  कोई,
आखिर  क्यूँ  सब  लोग  मुझे  अपना  बनाते  हैं,
मैंने  है  कर  ली  आज  काटों  से  दोस्ती ,
तब  फुल  भी  टूटकर  क़दमों  मै   बिखर  जाते  हैं,
आज  मै  गिरना  चाहता  हूँ   फिर   सीढियों  से
तो  सब  लोग  मुझे  क्यूँ  अपने  पलकों  पे  बिठाते  हैं,
आज  चाहता  हूँ  कि  मै  खूब  रोऊँ, 
 हँसाने  के  लिए  फिर  क्यूँ  मुझे  गुदगुदाते  हैं,
 आज   जब   चाहता  हूँ  मै   बैशाखी  का  सहारा, 
तो   फिर  लोग  क्यूँ  मेरे  कंधे  से  कन्धा  मिलते  हैं
पर  एक   बात  है  , जो  कल  यादों   मै  आते  थे  
 वे  कल   भी  रुलाते  थे  और  अब  भी   रुलाते  हैं
पर  अकसर  होता     है 
मेरे  साथ  ही  ऐसा  क्यूँ?


जब  मै  अपना  आज  बिताता  हूँ,
  तो  लोग  अपना  कल  बिताते  हैं

फूल गुलशन का

मै  एक  फूल  हूँ  गुलशन  का,
 जिसे  सब   लोग  सजा  देते  हैं,
हम  खुद   ही   टूट  कर  भी,
दूसरो  को  मजा  देते  हैं,
हमे  तोड़  कर  लोग  गले  का  हर  बना  लेते  हैं,
हमे  तोड़ते  हैं  और  निशान  ए  प्यार  बना  देते  हैं,
हम  ही  हैं  जो  कभी  कभी  गुलशन,
 भी  महका  देते  हैं,
लोग  कभी  कभी  हमे  यादों  मै  बसा  लेते  हैं ,
जरा  सुनो  मुझे  तोड़   लेने  वाले,
रहम  करना  मेरे  उस   माली  पर  भी  ,
जो  हमे   जिन्दगी  देने  के  लिए ,
 अपने  उँगलियों  मै   कांटे  चुभा  लेते  हैं ,
मुझे  शिकायत  है  यह  हर  आने  वाले  से ,
 गुलशन   से  तोड़  गुलदस्ते  क्यूँ  बना  देते   हैं,
 आता  है  जब  घर  मै  कोई  मेहमान  ,
वे  गुलदस्ते  थमा  देते  हैं,

 पूछता  हूँ  मै  जाते  हुए  उस  मेहमान  से ,
बताइए  कि  मेरी  खता  क्या  है  ??
जाते  हुए  किसी  के  घर  से 
 क्यूँ  हम  फूलों  को  ही  पैरों  से  दबा  देते  हैं ???

जीने का दिल करता नही पर मौत है कि आती नही

यादों  का   सहारा  कल  तक  जीने  के   लिए  काफी  था,
अब   आँखों   को   नींद  है  कि  आती  नही,

अब  जब  गुजरता  हूँ  उन्ही  वादियों   से  फिर  कभी  ,
जो  हसीं  लगती  थी  कल   तक   वो अब  दिल  को  भाती   नही,

 वो  सांसों  कि  गर्मियां  जेहन  मै  भी  हैं  अब  भी बसीं  ,
पर  अब  क्या  हुआ  जो  धडकने   फिर  से  तेज  हो  जाती  नही,

अब  गेसुयों  कि  खुशबू  ख्यालों   मै   तो  हैं   मगर  ,
क्या  हुआ  जो  अब  वो  गेसू  खुल  के  बिखर    जाती  नही  ,

वो  छेड़  जाना  नजरों  से  सबसे  नजर  बचा  कर  के  ,
क्या  हुआ   उन  नजरों  को  , कि  अब   वो  शोखियाँ  आती  नही ,

वो  अपलक  देखना  तेरा जब  भी  गुजरना  पास  से  ,
और  वो  सहेलियों  का  कहना  कि  एक  तू  है  कि  शर्माती  नही,
 
सबका  पूछना  कि  चेहरे  पे  तो   दीखती  हैं  शुर्खियाँ  तेरे  ,
और  एक  तू  है  कि हम से कुछ  बताती  नही,

अब  भी  करती  हैं  परेशां   बस  वही  मुहब्बत   कि   बातें  ,
कोशिश  करता  हूँ  बहुत  पर  वो  सरगोशियाँ  भूल  पाती  नही ,
  
भूल  के  ना  भूल  पाया  हूँ  मै  उस  भूल  को,
जीने  का  दिल  करता  नही  पर  मौत  है  कि  आती  नही ,

बेवफा कुते :

पाकिस्तान को हम देते हैं गाली पर एक बात है उनमे
कि उनके यहाँ आज भी आपस में करते हैं वफा “कुते “,


क्यूँ  अब सांप भी इन्सान के आस्तीन में आने से डरने लगा है ,
और सुरक्षित घर लगने लगे  हैं उन्हें अब कुकुरमुते ,


कुते भी डर रहें हैं आज इंसानों से वफा करने से अब ,
जब से देश की हिफाजत करने वाले इन्सान**  हो गये हैं “बेवफा कुते “,


क्यूँ फेंके जाते हैं हम किसी नेता के ऊपर ,
 बड़े अफ़सोस और  शर्म से  कह रहें थे   आपस में कुछ  जूते ..

** तथाकथित इन्सान

कौड़ियों के मोल

माना कि लादेन को मारा अमेरिका ने पाकिस्तान में ,
पर देखिये पाकिस्तान के नेता अपनों के साथ वफा तो कर रहें हैं ..

गौर इस बात पे  करने की जरुरत है की हमे अपनों से ही डर है ,
हमे बेवजह ही अमरीका की बहादुरी पे ख़ुशी  से मर रहें हैं..

जो पाकिस्तान में घुस के उसकी सल्तनत का मजाक  उड़ा सकता है ,
वो कुछ भी कर सकता है हमारे देश में,
क्यूंकि यहाँ के नेता देखिये कौड़ियों के मोल बिक रहें हैं …