Wednesday 14 September 2011

हसरत ( गजल )

कौन कहता है की आज हम परेशान बहुत हैं.
हमारी हसरतों को तोड़ने वाले वैसे इन्सान बहुत हैं,
हमने हर किसी की ठोकर को सीने से  लगाया है .
वैसे  सीने से लगाने वाले भी  इन्सान बहुत हैं,
किसको कहें अपना और किसको कहें गैर,
वैसे अपनों से ज्यादा  गैरों के एहसान बहुत  हैं ,
वो मुस्कुरा के मिलते हैं और सीने से लग   जाते हैं .
पर  फिर भी  लगता है दूरियां हमारे दरम्यान बहुत हैं,
हमारी  हर गजल को वो अश्कों का सामान कहते हैं ,
पर गजल की हर रदीफ़ में मेरे अरमान बहुत हैं ,
वो दूर होते हैं और हमारा दिल नही लगता .
वैसे दिल लगाने के लिए तो सामान बहुत हैं ,
वो चाँद हैं ऐसा तो मैंने हर शख्स   से सुना था .
कहने को तो यूँ उनके लिए आसमान बहुत हैं  ,
झोंका हवा का आया और दिल ये खंडहर हुआ ,
वैसे तो आने को  तो आते  रोज ही तूफान बहुत हैं
उनसे   लबों की  आरजू की  हिफाजत नही होती
वैसे उनसे कहने वाले भी बेजुबान बहुत हैं ,,
ऐ "माहिर "    तू लिखता है हसरत से इस कदर
तुम्हे खबर नही ऐसे हसरतों को लिए जनाजे और शमशान बहुत हैं ......
राजीव कुमार पाण्डेय "माहिर "

3 comments:

  1. Sir....aap to chha gaye...kamaal ki gazal likhi h aapne.

    ReplyDelete
  2. wah............good thinking but excellent way of expression..........dil ko bhi "sone" ka bana dala.....

    ReplyDelete
  3. wah!!! sir , kya khoob likha hai .....kash hum ye sunn bhe paate aap se...

    ReplyDelete