Saturday 10 September 2011

एहसास

पता  नही  अब  भी उससे  क्यूँ  डरता  हूँ  मै
जब  दूर  नजर  आती  है  आहें  भरता  हूँ  मै
पास  अगर  आ  जाती  , कितना  अच्छा  होता
पास  आ  जाती  है जब  तो  डरता  हूँ  मै

हर  रात  गुजरती   पल  पल  अब   तो  तन्हाई  में
ख्वाबों  में  उसके , इंकार  और  रुसवाई  में
पल  पल  अकसर  महसूस  उसे    करता   हूँ  मे 
उसका  अक्स  बना  बाँहों  में  भरता  हूँ  मे

हर  साँस  में  पास  पास  वो  लगती  है
कोमलता  का  एक  एहसास   वो  लगती  है
यूँ  तो  अकसर  जेहन  में  बहुत  तस्वीरें  हैं
पर  उनमे  सबसे  खास  वो  लगती  है


छू  देती  गर  होठों  से  , कितना   अच्छा  होता
बस  यही  सोच  होठों  को   भींचा  करता  हूँ   मे
पौध  कभी  तो  वृक्ष    बनेगा  यही  सोच  कर
नेह  और  स्नेह  से  सींचा  करता  हूँ मै

अकसर  जब   मेरे  पास  वो   आती  है
दुपट्टे  से  तेज  धडकनों  को  अपने  छुपाती   है
कमनीय  काया  अकसर  जब  बल  खाती   है
नैनों  को  झुका  कर  के  शर्माती   है 

हालात   इस  कदर  हुयें  हैं  अब  आशनाई  में
बदन  रह  रह  के  कांप   जाता  है  रजाई  में
तकिया  सीने  से  लगा  फिर  होठों  से  छुआ  करता  हूँ
अक्सर  उस  मखमली  काया  को  बाँहों  में  भरता  हूँ 

वह  हकीकत  में   नही  तो  ख्वाबों  में  सांसों  के  पास  तो  है
उसके  बदन  से  उठाते  हर  उफान   का  मुझे  एहसास  तो  है


वो  कुछ   नही  कहती  है  मुझे
अठखेलियाँ  साथ   उसके  कितनी  भी  करता  हूँ  मै
पर  कर  नही  पाया  बयाँ   दिल  के  अरमान  को
क्यूंकि  अरमानो  के  टूटने  से  बहुत  डरता  हूँ  मै . 
 

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