Wednesday 21 September 2011

"बिक रहे हैं कौड़ियों के मोल कफ़न आज भी " ...

मौत  देखिये  इंसानियत  से डर रहा है आज भी ,
रखवालों के हाथ में खंजर रहा है आज भी ,

खुद को मारा है इन्सान ने, अपने  जमीरों को दे सजा ,
कि आँखों के सामने उसके,लाशों का मंजर रहा है आज भी ...

जिन दरख्तों से काट दी हमने हजारों  डालियाँ ,
उन दरख्तों की गवाही देखिये कि, वहां बंजर रहा है आज भी,

खुद की तबाही का सबब जब रहा है तू यहाँ ,
फिर क्यूँ रोता हुआ , रात भर रहा है आज भी ??

हो रहे हैं सर कलम इंसानियत और ईमान के,
बिक रहे हैं देखिये जनाजे और कब्र इन्सान के ,

देख के मुस्कुरा रहे हम अपना ही दफ़न आज भी
बिक रहे हैं कौड़ियों के मोल कफ़न आज भी .........

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