Wednesday 21 September 2011

जख्मों को सहलाने की जरुरत क्या है ? ( Part-1) Love

नही प्यार तो फिर प्यार जताने की जरुरत क्या है ?
दिल मिलता नही तो आगोश में आने की जरुरत क्या है ?

दर्द देते हैं जो जानते हैं नब्ज अपनों का ,
तो फिर बेदर्द जमाने की जरूरत क्या है ?

आँखों में उनकी दिख जाती है इंकार ऐ मुह्हबत ,
तो फिर जान-निशार-ऐ-इश्क दिखाने की जरूरत क्या है ?

छिपाए बेठे हैं अपने पहलू में आप खंजर तो
मेरे जख्मों को सहलाने की जरुरत क्या है ?

वो मुस्कुराते हैं तो सीने में तड़प उठती है
इस कदर भी मुस्कुराने की जरूरत क्या है ?

हाथों में हाथ लिए फिरते थे सरे आम सडकों पर
और कह्ते थे फ़िक्र ऐ जमाने की जरूरत क्या है ?

ताउम्र साथ ना दे पाते हैं आजकल रिश्ते
तो ऐसे रिश्तों को बनाने की जरूरत क्या है ?

गैर तो गैर हैं अपने भी आबरू पे नज़र रखते हैं .
तो फिर गैर या अपनों की बाँहों में जाने की जरूरत क्या है ?

हुश्न दिखता है चाहे कैद हों परदे में भी
फिर नुमाया करके दिखाने की जरुरत क्या है ??

महबूब की आँखों में जब यहाँ रब दिखता है
तो खुदा के दर पे जाने की जरूरत क्या है ?

सुना है आँखों में वो मयखाना लिए फिरते हैं
तो फिर बोतल से पिलाने की जरुरत क्या है ?

हवेली -ऐ- हुश्न यहाँ रोज खंडहर में बदल जातें हैं
ऐसी तुफानो में भी जाने की जरुरत क्या है ?

लुटी थी आबरू किसी की इज्जतदारों के मुहल्ले में
ऐसे इज्जतदारों को इज्जतदार कहलाने की जरुरत क्या है?

कमर कांपा था उस दिन अँधेरे में बड़ी बेदर्दी से
फिर दिन में नजाकत से यूँ बल खाने की जरुरत क्या है ?????

To be continued in next part.........

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